Nano Banana AI प्राइवेसी खतरा: Instagram ट्रेंड पर फोटो अपलोड के रिस्क और सुरक्षा गाइड

Nano Banana AI प्राइवेसी खतरा: Instagram ट्रेंड पर फोटो अपलोड के रिस्क और सुरक्षा गाइड

Saniya Shah 16 सित॰ 2025

यह ट्रेंड है मजेदार, पर डर किस बात का?

सोशल मीडिया पर Nano Banana AI ट्रेंड तेजी से फैला है। लोग अपनी साधारण सेल्फी को 3D फिगरीन, पोलरॉइड-स्टाइल तस्वीरों और पारंपरिक साड़ी वाली इमेज में बदल रहे हैं। कई पोस्टों में यह फीचर Google Gemini के Flash 2.5 (और कुछ मामलों में Flash 2.0) इमेज-जेनरेशन मॉडल का रीब्रांडेड रूप बताया गया। आइडिया मजेदार है—एक क्लिक में स्टाइलिश, विंटेज बैकड्रॉप और हाइपर-रियल लुक।

लेकिन एक घटना ने उत्साह की जगह बेचैनी भर दी। एक यूज़र ने साड़ी-इमेज जनरेशन का इस्तेमाल किया और जो नतीजा आया, उसमें उनके बाएं हाथ पर तिल दिख रहा था—ऐसा तिल जो न तो उनके प्रॉम्प्ट में था, न मूल फोटो में साफ दिख रहा था। उन्होंने इसे “बहुत डरावना” और “क्रीपी” कहा। सवाल उठा—AI यह निजी डिटेल कहां से ले आया?

यह सिर्फ एक पोस्ट नहीं, बल्कि एक संकेत है कि यूज़र अब समझना चाहते हैं: फोटो अपलोड करते समय डेटा कहाں जाता है, मॉडल क्या-क्या प्रोसेस करता है, और क्या प्लेटफॉर्म्स हमारी उम्मीद से ज्यादा जानकारी देख रहे हैं?

कानून-व्यवस्था से जुड़े अफसरों ने भी ध्यान दिलाया है। एक आईपीएस अधिकारी ने सोशल मीडिया पर लोगों को आगाह किया—किसी भी वेबसाइट या ऐप पर फोटो डालने से पहले जांच लें कि वह सुरक्षित है या नहीं। खासकर वे साइटें जो बिना साफ शर्तों के फोटो मांगती हैं, उनसे दूर रहें।

यहां मूल चिंता दो स्तरों पर है। पहला, टेक्निकल—क्या मॉडल ने “देखा” कुछ ऐसा जो यूज़र ने दिया ही नहीं? दूसरा, पॉलिसी—हमारी फोटो अपलोड होने के बाद कहां स्टोर होती है, कितने समय के लिए रहती है, और क्या उसे मॉडल-ट्रेनिंग में इस्तेमाल किया जा सकता है?

क्या हुआ होगा तकनीकी तौर पर, और आप क्या कर सकते हैं

क्या हुआ होगा तकनीकी तौर पर, और आप क्या कर सकते हैं

सबसे पहले तकनीकी हिस्से पर साफ बात। अभी तक कोई ठोस सार्वजनिक सबूत नहीं है कि किसी जनरेटिव AI मॉडल ने “गुप्त” मेडिकल या निजी डेटाबेस से किसी यूज़र का शरीर-संबंधी डेटा खींच लिया हो। जो रिपोर्टेड केस है, उसके पीछे कुछ संभावित वजहें हो सकती हैं—यह अनुमान हैं, तथ्य नहीं:

  • जनरेटिव आर्टिफैक्ट: इमेज मॉडल कभी-कभी “यथार्थ” दिखाने के लिए त्वचा की बनावट, छोटे दाग-धब्बे या तिल जैसे डिटेल बना देता है। यह गलत भी हो सकता है, पर देखने में असली लगता है।
  • लो-रेज से हाई-रेज का अनुमान: अगर मूल फोटो में हल्का-सा पैटर्न था जो आंख से नहीं दिख रहा था, मॉडल ने अपस्केलिंग के दौरान उसे “एम्प्लिफाई” कर दिया। यानी अंदाजा लगाकर डिटेल भर दी।
  • टेम्पलेट बायस: ट्रेनिंग डेटा में “रियलिस्टिक स्किन” के लिए तिल/झाइयां जैसे फीचर आम होते हैं, तो मॉडल आदतन ऐसे डिटेल जोड़ देता है।
  • इनपुट/प्रीप्रोसेसिंग: कभी-कभी ऐप फोटो पर पहले से फिल्टर, शार्पनिंग या डीनॉइजिंग चलाता है। इस स्टेप से अनदेखे पैटर्न उभर सकते हैं और जनरेशन में शामिल हो जाते हैं।

यानी, जो “देखा” गया, वह जरूरी नहीं कि किसी बाहरी निजी डेटा का रिसाव हो; यह मॉडल का “स्मार्ट” पर गलत अनुमान भी हो सकता है। फिर भी यूज़र की चिंता जायज़ है—क्योंकि कंट्रोल और पारदर्शिता कम दिखती है।

अब पॉलिसी और डेटा फ्लो। आमतौर पर जब आप किसी AI फिल्टर या वेब-टूल पर फोटो अपलोड करते हैं, तो वह इमेज क्लाउड सर्वर पर प्रोसेस होती है। यहां दो अहम बातें हैं: (1) क्या कंपनी आपकी इमेज अस्थायी कैश के बाद डिलीट करती है या स्टोर रखती है? (2) क्या उसने T&C में यह लिखा है कि यूज़र डेटा मॉडल-इंप्रूवमेंट के लिए इस्तेमाल हो सकता है? बड़े प्लेटफॉर्म में “डेटा-टू-इम्प्रूव प्रोडक्ट” जैसा टॉगल होता है, पर थर्ड-पार्टी री-रैप्स में यह साफ नहीं दिखता। यहीं जोखिम बढ़ता है।

कानूनी ढांचा क्या कहता है? भारत का डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन (DPDP) कानून सहमति, उद्देश्य-सीमा और शिकायत निवारण पर जोर देता है। मतलब, कंपनी को स्पष्ट बताना चाहिए कि आपका डेटा क्यों लिया जा रहा है और कितने समय तक रहेगा। यूज़र को सहमति वापस लेने और डिलीट की मांग करने का हक है। नियम चरणों में लागू हो रहे हैं, इसलिए व्यावहारिक रूप से सबसे पहले आपको उसी प्लेटफॉर्म के ग्रिविएंस चैनल पर जाना होगा, और जरूरत पड़े तो CERT-In या साइबर हेल्पलाइन तक बात बढ़ानी होगी।

तो यूज़र के लिए व्यावहारिक चेकलिस्ट क्या है? यह रखें याद:

  • स्रोत की जांच: टूल वाकई उसी कंपनी का है जो दावा कर रही है? अजीब-सा डोमेन, टूटा-फूटा UI, या “अनलिमिटेड फ्री” जैसे लालच—रेड फ्लैग हैं।
  • लॉगिन वॉल से सावधान: सिंगल-यूज़ फिल्टर के लिए फोन नंबर/पूरा नाम मांगना जरूरी नहीं। नकली साइन-अप से बचें।
  • परमिशन मिनिमम रखें: कैमरा/गैलरी/लोकेशन—जो जरूरी हो, वही दें। ऐप सेटिंग्स में बाद में परमिशन ऑफ कर दें।
  • मेटाडेटा हटाएं: फोटो से EXIF/लोकेशन हटाने के लिए फोन की “शेयर विदाउट लोकेशन” सेटिंग या साधन का इस्तेमाल करें।
  • फेस/आईडी मास्किंग: शक है तो चेहरा, टैटू, लाइसेंस प्लेट, स्कूल लोगो जैसी पहचान छिपा दें।
  • ऑन-डिवाइस विकल्प चुनें: जहां संभव हो, ऐसे फोटो एडिटिंग टूल्स लें जो प्रोसेसिंग डिवाइस पर करते हैं, क्लाउड पर नहीं।
  • डेटा-इम्प्रूवमेंट टॉगल ऑफ करें: बड़े AI प्लेटफॉर्म में यह विकल्प मिलता है—उसे बंद रखें।
  • अकाउंट अलग रखें: ऐसे ट्रेंड्स के लिए अलग ईमेल/अकाउंट रखें। पर्सनल क्लाउड या मेन गैलरी लिंक न करें।
  • माइनर्स की तस्वीरें न अपलोड करें: बच्चों की इमेज खास तौर पर संवेदनशील होती हैं।
  • वॉटरमार्क समझें: कई कंपनियां AI इमेज में सूक्ष्म वॉटरमार्क जोड़ती हैं। जनरेटेड फोटो को कहीं और “रियल” बताकर शेयर न करें।
  • डिलीट रिक्वेस्ट भेजें: फोटो जनरेशन के बाद “डिलीट माय डेटा” का ऑप्शन खोजें; न मिले तो सपोर्ट/ग्रिविएंस से लिखित में मांग करें।
  • समस्या हो तो रिपोर्ट करें: भ्रामक या अवैध साइट दिखे तो प्लेटफॉर्म रिपोर्ट, साइबर क्राइम पोर्टल या हेल्पलाइन 1930 पर मदद लें।

ब्रॉडर जिम्मेदारी प्लेटफॉर्म्स की भी है। ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट दें—इमेज कितने समय तक रहती हैं, ऑटो-डिलीट कब होता है, क्या मॉडल ट्रेनिंग में यूज़र कंटेंट शामिल है। “मॉडल कार्ड” और स्पष्ट “डेटा-रिटेंशन नोटिस” जैसे कदम भरोसा बढ़ाते हैं। AI इमेज वाटरमार्किंग (जैसे इंडस्ट्री-स्टैंडर्ड समाधान) को लगातार बेहतर किया जाना चाहिए ताकि असली-नकली का फर्क पता रहे।

क्रिएटिव यूज़ केस भी हैं—रेट्रो एल्बम, फैशन थीम, 3D अवतार। लेकिन मज़ा तभी सुरक्षित है जब कंट्रोल आपके पास रहे। एक अच्छा नियम मान लें: जो फोटो आप किसी अनजान सर्वर को देना नहीं चाहेंगे, उसे अपलोड ही न करें। और जो अपलोड कर रहे हैं, उसके साथ यह भी तय कर लें—कब और कैसे वह डिलीट होगी।

और वह डरावना तिल? बहुत मुमकिन है कि वह मॉडल की “यथार्थवादी” आदत की उपज हो। फिर भी यह घटना हमें याद दिलाती है—AI टूल्स की ताकत बढ़ रही है, तो पारदर्शिता भी उतनी ही जरूरी है। यूज़र को साफ, सरल और पहले से बताए गए नियम चाहिए—तभी भरोसा टिकेगा। जब तक यह मानक नहीं बनते, सावधानी ही आपकी सबसे मजबूत ढाल है।