भाषा युद्ध को सुलझाते विशेषज्ञ: संवाद, पहचान या राजनीति?

भाषा युद्ध को सुलझाते विशेषज्ञ: संवाद, पहचान या राजनीति?

Saniya Shah 25 सित॰ 2025

इंडिया टुडे कॉंकोर्स मुंबई में भाषा विशेषज्ञों का आगाज़

मुंबई में आयोजित इंडिया टुडे कॉंकोर्स के सत्र में भाषा को लेकर चल रहे "भाषा युद्ध" को समझने के लिये कई विद्वानों ने अपने‑अपने विचार रखे। मंच पर हिंदी, मराठी, उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के प्रोफेसर, सामाजिक कार्यकर्ता तथा नीति‑निर्माता शामिल थे।

सत्र की शुरुआत में उन्होंने बताया कि भाषा का मूल उद्देश्य संवाद है—विचारों, भावनाओं और ज्ञान का आदान‑प्रदान। परन्तु जब भाषा किसी समूह की पहचान से जुड़ती है, तो वह सामाजिक सीमाओं को भी रेखांकित कर देती है। इस पहचान‑आधारित पहलू ने कई बार दंगाई माहौल को जन्म दिया, विशेषकर जब राजनैतिक दल इस विभाजन को वोट बैंक बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं।

विभिन्न उदाहरणों की तरफ इशारा करते हुए एक द्रष्टा ने कहा कि 1990 के दशक में मध्य भारत में हिन्दी‑भाषी आंदोलन और दक्षिण भारत में तमिल भाषा अधिकार का संघर्ष बिल्कुल इसी पैटर्न का था। दोनों ही मामलों में भाषा को पहचान का प्रतीक बनाया गया और बाद में इसे तेज़ी से राजनीतिक हथियार में बदल दिया गया।

किसी भी बहस में भाषाई नीति का असर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। विशेषज्ञों ने सुझाव दिया कि सरकार को शिक्षा और नौकरियों में बहुभाषी पहल को प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि भाषा का उपयोग संवाद के रूप में ही रहे, न कि विभाजन की कसौटी के रूप में।

सत्र के अंत में दर्शकों ने प्रश्न पूछे—क्या भाषा के अधिकारों का दुरुपयोग रोकने के लिये कानूनी फ़्रेमवर्क बनना चाहिए? अधिकांश विशेषज्ञों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि सामाजिक जागरूकता ही सबसे बड़ा समाधान है, और इसके लिए स्कूल‑सेमिनार, मीडिया और सार्वजनिक चर्चा को बढ़ावा देना आवश्यक है।